रोज़ा रखता हूँ सुबूही पी के हंगाम-ए-सहर
शाम को मस्जिद में होता हूँ जमाअत का शरीक
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आशिक़ जो हुआ है तू किसी पर नागाह
ईद है हम ने भी जाना कि न होती गर ईद
सूरत वो पहली कि हो मगर माह-ए-तमाम
'नाज़िम' ये इंतिज़ाम रिआ'यत है नाम की
बंद महरम के वो खुलवातें हैं हम से बेशतर
रोने की ये शिद्दत है कि घबरा गईं आँखें
इख़्लास की धोके पर हूँ माइल तेरा
कुफ़्र-ओ-ईमाँ से है क्या बहस इक तमन्ना चाहिए
कहते हैं छुप के रात को पीता है रोज़ मय
न बुज़ला-संज न शाएर न शोख़-तब्अ रक़ीब
कहते हो सब कि तुझ से ख़फ़ा हो गया है यार
वो जब आप से अपना पर्दा करें