ऐ नोश-ए-लब-ओ-माह-रुख़-ओ-ज़ोहरा-जबीं
आइना ही तिरे रुख़ पे हैरान नहीं
है शाना ख़म-ए-ज़ुल्फ़ में ज़ंजीर-ब-पा
है सुर्मा रवाक़-ए-चश्म में गोशा-नशीं
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तेरे दर से मैं उठा लेकिन न मेरा दिल उठा
न बुज़ला-संज न शाएर न शोख़-तब्अ रक़ीब
ज़ाहिर में अगरचे यार ग़म-ख़्वार नहीं
उलझे जो रक़ीब से वो कल पी के शराब
शबिस्ताँ में रहो बाग़ों में खेलो मुझ से क्यूँ पूछो
आशिक़ जो हुआ है तू किसी पर नागाह
दिल में उतरी है निगह रह गईं बाहर पलकें
जब गुज़रती है शब-ए-हिज्र मैं जी उठता हूँ
कभी ख़ूँ होती हुए और कभी जलते देखा
कलाम-ए-सख़्त कह कह कर वो क्या हम पर बरसते हैं
जब कहो क्यूँ हो ख़फ़ा क्या बाइ'स