फूँक दो याँ गर ख़स-ओ-ख़ाशाक हैं
दूर क्यूँ फेंको हमें गुलज़ार से
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Habib Jalib
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रोज़ा रखता हूँ सुबूही पी के हंगाम-ए-सहर
'नाज़िम' उसे ख़त में कहते हो क्या लिखिए
'नाज़िम' ये इंतिज़ाम रिआ'यत है नाम की
अफ़्साना-ए-मजनूँ से नहीं कम मिरा क़िस्सा
हम उन की नज़र में समाने लगे
वो चश्मा दिला कहाँ से पैदा होगा
जब गुज़रती है शब-ए-हिज्र मैं जी उठता हूँ
उस बुत का कूचा मस्जिद-ए-जामे नहीं है शैख़
क्या बात है कारसाज़ तेरी मैं कौन
हक़ ये है कि का'बे की बिना भी न पड़ी थी
अंदाज़-ओ-अदा से कुछ अगर पहचानूँ
बाक़ी न रही हाथ में जब क़ुव्वत-ओ-ज़ोर