क्या मेरे काम से है रवाई को दुश्मनी
कश्ती मिरी खुली थी कि दरिया ठहर गया
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कम समझते नहीं हम ख़ुल्द से मयख़ाने को
अफ़्साना-ए-मजनूँ से नहीं कम मिरा क़िस्सा
एक है जब मरजा-ए-इस्लाम-ओ-कुफ़्र
जानाँ को सर-ए-मेहर-ओ-वफ़ा है झूट सब
ये किस ज़ोहरा-जबीं की अंजुमन में आमद आमद है
इस तवक़्क़ो' पे कि देखूँ कभी आते जाते
बे दिए ले उड़ा कबूतर ख़त
अपना अपना रंग दिखलाती हैं जानी चूड़ियाँ
शाएर बने नदीम बने क़िस्सा-ख़्वाँ बने
गो उस की नहीं लुत्फ़-ओ-इनायत बाक़ी
कभी ख़ूँ होती हुए और कभी जलते देखा
मिल जाएँ अज़दहाम में हम ही ये हम से दूर