कम समझते नहीं हम ख़ुल्द से मयख़ाने को
दीदा-ए-हूर कहा चाहिए पैमाने को
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क्या खाएँ हम वफ़ा में अब ईमान की क़सम
इस तवक़्क़ो' पे कि देखूँ कभी आते जाते
ये किस ज़ोहरा-जबीं की अंजुमन में आमद आमद है
ख़रीदारी है शहद ओ शीर ओ क़स्र ओ हूर ओ ग़िल्माँ की
'नाज़िम' उसे ख़त में कहते हो क्या लिखिए
जुम्बिश अबरू को है लेकिन नहीं आशिक़ पे निगाह
दिल में उतरी है निगह रह गईं बाहर पलकें
बंद महरम के वो खुलवातें हैं हम से बेशतर
तेरे दर से मैं उठा लेकिन न मेरा दिल उठा
जब गुज़रती है शब-ए-हिज्र मैं जी उठता हूँ
शबिस्ताँ में रहो बाग़ों में खेलो मुझ से क्यूँ पूछो
घर की वीरानी को क्या रोऊँ कि ये पहले सी