है रिश्ता एक फिर ये कशाकश न चाहिए
अच्छा नहीं है सुब्हा का ज़ुन्नार से बिगाड़
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कहते हैं छुप के रात को पीता है रोज़ मय
घर की वीरानी को क्या रोऊँ कि ये पहले सी
अफ़्साना-ए-मजनूँ से नहीं कम मिरा क़िस्सा
है दौर-ए-फ़लक ज़ोफ़ में पेश-ए-नज़र अपने
ले के अपनी ज़ुल्फ़ को वो प्यारे प्यारे हाथ में
शाएर बने नदीम बने क़िस्सा-ख़्वाँ बने
ये किस ज़ोहरा-जबीं की अंजुमन में आमद आमद है
ज़ाहिर में अगरचे यार ग़म-ख़्वार नहीं
गो उस की नहीं लुत्फ़-ओ-इनायत बाक़ी
थी आसमाँ पे मेरी चढ़ाई तमाम रात
न बुज़ला-संज न शाएर न शोख़-तब्अ रक़ीब
गो कुछ भी वो मुँह से नहीं फ़रमाते हैं