बोसा-ए-आरिज़ मुझे देते हुए डरता है क्यूँ
लूँगा क्या नोक-ए-ज़बाँ से तेरे रुख़ का तिल उठा
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घर की वीरानी को क्या रोऊँ कि ये पहले सी
जाँ-फ़िशानी का वाँ हिसाब अबस
जब तिरा नाम सुना तो नज़र आया गोया
गो उस की नहीं लुत्फ़-ओ-इनायत बाक़ी
मोहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का
ऐ नोश-ए-लब-ओ-माह-रुख़-ओ-ज़ोहरा-जबीं
आशिक़-ए-हक़ हैं हमीं शिकवा-ए-तक़दीर नहीं
कहते हो सब कि तुझ से ख़फ़ा हो गया है यार
हक़ ये है कि का'बे की बिना भी न पड़ी थी
अंदाज़-ओ-अदा से कुछ अगर पहचानूँ
यहाँ काल से है तरह तरह की तकलीफ़