चाहूँ कि हाल-ए-वहशत-ए-दिल कुछ रक़म करूँ
भागें हुरूफ़ वक़्त-ए-निगारिश क़लम से दूर
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इस तवक़्क़ो' पे कि देखूँ कभी आते जाते
मिल जाएँ अज़दहाम में हम ही ये हम से दूर
शाएर बने नदीम बने क़िस्सा-ख़्वाँ बने
पुर्सिश को अगर होंट तुम्हारे नहीं हिलते
शबिस्ताँ में रहो बाग़ों में खेलो मुझ से क्यूँ पूछो
ये किस ज़ोहरा-जबीं की अंजुमन में आमद आमद है
कभी ख़ूँ होती हुए और कभी जलते देखा
जब तिरा नाम सुना तो नज़र आया गोया
क्या बात है कारसाज़ तेरी मैं कौन
सूरत वो पहली कि हो मगर माह-ए-तमाम
नागाह मुझे दिखा के ताब-ए-रुख़्सार
गो कुछ भी वो मुँह से नहीं फ़रमाते हैं