यहाँ काल से है तरह तरह की तकलीफ़
फ़ाक़ों से हुए हैं आदमी ज़ार नहीफ़
इस साल में या हज़रत-ए-माह-ए-रमज़ाँ
हाजत क्या थी कि आप लाए तशरीफ़
Parveen Shakir
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'नाज़िम' उसे ख़त में कहते हो क्या लिखिए
बंद महरम के वो खुलवातें हैं हम से बेशतर
फूँक दो याँ गर ख़स-ओ-ख़ाशाक हैं
इस तवक़्क़ो' पे कि देखूँ कभी आते जाते
मिल जाएँ अज़दहाम में हम ही ये हम से दूर
बर-सर-ए-लुत्फ़ आज चश्म-ए-दिल-रुबा थी मैं न था
उस बुत का कूचा मस्जिद-ए-जामे नहीं है शैख़
इख़्लास की धोके पर हूँ माइल तेरा
कलाम-ए-सख़्त कह कह कर वो क्या हम पर बरसते हैं
अपना अपना रंग दिखलाती हैं जानी चूड़ियाँ
जब गुज़रती है शब-ए-हिज्र मैं जी उठता हूँ
ऐ नोश-ए-लब-ओ-माह-रुख़-ओ-ज़ोहरा-जबीं