भला क्या ता'ना दूँ ज़ुहहाद को ज़ुहद-ए-रियाई का
पढ़ी है मैं ने मस्जिद में नमाज़-ए-बे-वज़ू बरसों
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उलझे जो रक़ीब से वो कल पी के शराब
ईद है हम ने भी जाना कि न होती गर ईद
है दौर-ए-फ़लक ज़ोफ़ में पेश-ए-नज़र अपने
जब तिरा नाम सुना तो नज़र आया गोया
'नाज़िम' उसे ख़त में कहते हो क्या लिखिए
ईद के दिन जाइए क्यूँ ईद-गाह
वो जब आप से अपना पर्दा करें
मैं ने कहा कि दा'वा-ए-उलफ़त मगर ग़लत
बोसा-ए-आरिज़ मुझे देते हुए डरता है क्यूँ
बर-सर-ए-लुत्फ़ आज चश्म-ए-दिल-रुबा थी मैं न था
हम ने सौ सौ तरह बनाई बात
रोज़ा रखता हूँ सुबूही पी के हंगाम-ए-सहर