हमारे ज़ेहन की इस अर्श-पैमाई के क्या कहने
हम अपने ज़ेहन के बारे में जब भी सोचते हैं
मगर ये भी तो सोचो ज़ेहन के बारे में किस से सोचते हैं
क्या हमारा ज़ेहन ही फ़ाएल भी है और मुन्फ़इल भी
हम को ये महसूस होता है
हम अपने आप से कितने ज़ियादा हैं
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ये तय हुआ है कि शेर ओ अदब के पैमाने
सतह-ए-दरिया का ये सफ़्फ़ाक सुकूँ है धोका
ला-यख़ुल
बहार अब के जो गुज़री तो फिर न आएगी
मैं कहाँ और कहाँ शाएरी मैं ने तो फ़क़त
मुझ सा अंजान किसी मोड़ पे खो सकता है
बहुत से सैल-ए-हवादिस की ज़द पे बह गए हैं
चमन इतना ख़िज़ाँ-आसार पहले कब हुआ था
मैं जिन गलियों में पैहम बरसर-ए-गर्दिश रहा हूँ
तिरी गली में गए कितने माह ओ साल हुए