मुझ सा अंजान किसी मोड़ पे खो सकता है
हादसा कोई भी इस शहर में हो सकता है
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सतह-ए-दरिया का ये सफ़्फ़ाक सुकूँ है धोका
हम अपने आप से कितने ज़ियादा हैं
इसे मैं और ये मेरा असा ही तय करेगा
मह-ओ-अंजुम ने क़बा की तो तुम्हारे लिए की
ये तय हुआ है कि शेर ओ अदब के पैमाने
ला-यख़ुल
तिरी गली में गए कितने माह ओ साल हुए
बहार अब के जो गुज़री तो फिर न आएगी
फिर उस की याद ने दस्तक दिल-ए-हज़ीं पर दी
मैं जिन गलियों में पैहम बरसर-ए-गर्दिश रहा हूँ