सतह-ए-दरिया का ये सफ़्फ़ाक सुकूँ है धोका
ये तिरी नाव किसी वक़्त डुबो सकता है
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चमन इतना ख़िज़ाँ-आसार पहले कब हुआ था
बहार अब के जो गुज़री तो फिर न आएगी
तिरी गली में गए कितने माह ओ साल हुए
मैं कहाँ और कहाँ शाएरी मैं ने तो फ़क़त
मुझ सा अंजान किसी मोड़ पे खो सकता है
इसे मैं और ये मेरा असा ही तय करेगा
बहुत से सैल-ए-हवादिस की ज़द पे बह गए हैं
ये तय हुआ है कि शेर ओ अदब के पैमाने
फिर उस की याद ने दस्तक दिल-ए-हज़ीं पर दी
हम अपने आप से कितने ज़ियादा हैं
मैं जिन गलियों में पैहम बरसर-ए-गर्दिश रहा हूँ