मोहब्बत में शिकायत कर रहा हूँ
शिकायत में मोहब्बत कर रहा हूँ
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मैं ख़ुद अपना लहू पीने लगा हूँ
तुम जिसे चाँद कहते हो वो अस्ल में
तुम मिरे पास न आओ कि यही बेहतर है
भाड़े का इक मकाँ हूँ मुझ को ख़बर नहीं है
नींद आए तो कुछ सुराग़ मिले
तजरबा जो भी है मेरा मैं वही लिखता हूँ
अश्क-दर-अश्क वही लोग रवाँ मिलते हैं
मैं तिरे जिस्म के जब पार निकल जाऊँगा
वो तो मिल कर भी नहीं मिलती है
क़त्ल करना है नए ख़्वाब का सो डरता हूँ
शेर पढ़ते हुए ये तुम ने कभी सोचा है