ऐ अहल-ए-वफ़ा ख़ाक बने काम तुम्हारा
आग़ाज़ बता देता है अंजाम तुम्हारा
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ज़मीं रोई हमारे हाल पर और आसमाँ रोया
चला जाता है कारवान-ए-नफ़स
मुझ से जो न मिलते वो कोई रात न थी
दोनों ने किया है मुझ को रुस्वा
बढ़ चली है बहुत हया तेरी
मज़ा आता अगर गुज़री हुई बातों का अफ़्साना
ज़ालिम की तो आदत है सताता ही रहेगा
ज़ब्त की कोशिश है जान-ए-ना-तवाँ मुश्किल में है
'वहशत' सुख़न ओ लुत्फ़-ए-सुख़न और ही शय है
शर्मिंदा किया जौहर-ए-बालिग़-नज़री ने
कहते हो अब मिरे मज़लूम पे बेदाद न हो