इस ज़माने में बुज़ुर्गी सिफ़्लगी का नाम है
जिस की टिकिया में फिरे उँगली सो हो जावे तिरा
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नयन में ख़ूँ भर आया दिल में ख़ार-ए-ग़म छुपा शायद
तिरी वहशत की सरसर से उड़ा जूँ पात आँधी का
वो क्या दिन थे जो क़ातिल-बिन दिल-ए-रंजूर रो देता
इश्क़ गोरे हुस्न का आशिक़ के दिल को दे जला
बाद-ए-बहार में सब आतिश जुनून की है
घर यार का हम से दूर पड़ा गई हम से राहत एक तरफ़
दर्द जूँ शम्अ' मिले है शब-ए-हिज्राँ मुझ को
मैं वो मजनूँ हूँ कि आबाद न उजड़ा समझूँ
अगर मैं मोजज़े को ख़ाकसारी के अयाँ करता
ग़ुंचा-ए-दिल मिरा खा कर गुल-ए-ख़ंदाँ मेरा
तिरी ज़ुल्फ़ की शब का बेदार मैं हूँ
है उस की ज़ुल्फ़ से नित पंजा-ए-अदू गुस्ताख़