अजब तरह से गुज़ारी है ज़िंदगी हम ने
जहाँ में रह के न कार-ए-जहाँ को पहचाना
Wasi Shah
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उम्मीद
कितनी बार बुलाया उस को
जब आँख खुली मेरी
ज़ात के रोग में
अब दिन की बातें करते हैं
न आँखें ही झपकता है न कोई बात करता है
वो अपनी उम्र को पहले पिरो लेता है डोरी में
उम्र भर उस ने बेवफ़ाई की
बादल बरस के खुल गया रुत मेहरबाँ हुई
लाज़िम कहाँ कि सारा जहाँ ख़ुश-लिबास हो
सफ़र