बंद उस ने कर लिए थे घर के दरवाज़े अगर
फिर खुला क्यूँ रह गया था एक दर मेरे लिए
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पेश-गोई
धार सी ताज़ा लहू की शबनम-अफ़्शानी में है
उम्र भर उस ने बेवफ़ाई की
उड़ी जो गर्द तो इस ख़ाक-दाँ को पहचाना
कहने को चंद गाम था ये अरसा-ए-हयात
कराँ-ता-कराँ
इस गिर्या-ए-पैहम की अज़िय्यत से बचा दे
रात भर इक सदा
भूरी मिट्टी की तह को हटाएँ
पीपल
ज़ात के रोग में
ऐसे बढ़े कि मंज़िलें रस्ते में बिछ गईं