ये कैसी आँख थी जो रो पड़ी है
ये कैसा ख़्वाब था जो बुझ गया है
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रेत पर छोड़ गया नक़्श हज़ारों अपने
वो परिंदा है कहाँ शब को चहकने वाला
सुनो उजड़ा मकाँ इक बद-दुआ है
बंधन
उम्र भर उस ने बेवफ़ाई की
मैं और तू
गुल ने ख़ुशबू को तज दिया न रहा
थी नींद मेरी मगर उस में ख़्वाब उस का था
न आँखें ही झपकता है न कोई बात करता है
उस की आवाज़ में थे सारे ख़द-ओ-ख़ाल उस के
खुली किताब थी फूलों-भरी ज़मीं मेरी
वो अपनी उम्र को पहले पिरो लेता है डोरी में