गुनाह गिन के मैं क्यूँ अपने दिल को छोटा करूँ
सुना है तेरे करम का कोई हिसाब नहीं
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फ़र्दा को दूर ही से हमारा सलाम है
बादल को लगी खिलते बरसते कुछ देर
रोना है बदा जिन्हें वो जम जम रोएँ
साया अगर नसीब हो दीवार-ए-यार का
हैरान है क्यूँ राज़-ए-बक़ा मुझ से पूछ
वाँ नक़ाब उट्ठी कि सुब्ह-ए-हश्र का मंज़र खुला
सब्र करना सख़्त मुश्किल है तड़पना सहल है
मुमकिन नहीं अंदेशा-ए-फ़र्दा कम हो
ख़ुदा की मार वो अय्याम-ए-शोर-ओ-शर गुज़रे
ख़ुदी का नश्शा चढ़ा आप में रहा न गया
वल्लाह ये ज़िंदगी भी है क़ाबिल-ए-दीद
रंग बदला फिर हवा का मय-कशों के दिन फिरे