सब्र करना सख़्त मुश्किल है तड़पना सहल है
अपने बस का काम कर लेता हूँ आसाँ देख कर
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ख़ुदी का नश्शा चढ़ा आप में रहा न गया
काम दीवानों को शहरों से न बाज़ारों से
परवाने कहाँ मरते बिछड़ते पहुँचे
इम्तियाज़-ए-सूरत-ओ-मअ'नी से बेगाना हुआ
कशिश-ए-लखनऊ अरे तौबा
उम्मीद-ओ-बीम ने मारा मुझे दो-राहे पर
दामन-ए-क़ातिल जो उड़ उड़ कर हवा देने लगे
कोई तुझ को पुकारता जाता है
सुब्ह-ए-अज़ल ओ शाम-ए-अबद कुछ भी नहीं
ख़ुदा जाने अजल को पहले किस पर रहम आएगा
'यास' इस चर्ख़-ए-ज़माना-साज़ का क्या ए'तिबार
आप में क्यूँकर रहे कोई ये सामाँ देख कर