इम्कान-ए-तलब से कोई आगाह तो हो
मंज़िल का तह-ए-दिल से हवा-ख़्वाह तो हो
चल फिर के ज़रा देख झिजकता क्या है
मिल जाएगी राह-ए-रास्त गुमराह तो हो
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सुब्ह-ए-अज़ल ओ शाम-ए-अबद कुछ भी नहीं
ज़माना ख़ुदा को ख़ुदा जानता है
मुफ़लिसी में मिज़ाज शाहाना
वाइज़ को मुनासिब नहीं रिंदों से तने
यार है आइना है शाना है
पहाड़ काटने वाले ज़मीं से हार गए
क़यामत है शब-ए-वादा का इतना मुख़्तसर होना
अरमान निकलने का मज़ा है कुछ और
देखूँ कब तक गुलों की ये तिश्ना-लबी
मरते दम तक तिरी तलवार का दम भरते रहे
क्यूँ किसी से वफ़ा करे कोई
चलता नहीं फ़रेब किसी उज़्र-ख़्वाह का