चैन ही कब लेने देता था किसी का ग़म हमें
ये न देखा उम्र भर अपना भी दामन चाक था
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नज़रों में कहाँ उस की वो पहला सा रहा मैं
चंद घंटे शोर ओ ग़ुल की ज़िंदगी चारों तरफ़
सर के नीचे ईंट रख कर उम्र भर सोया है तू
क्या हुआ हम से जो दुनिया बद-गुमाँ होने लगी
अगरचे हाल ओ हवादिस की हुक्मरानी है
हर नया रस्ता निकलता है जो मंज़िल के लिए
आतिश-ए-ग़म में भभूका दीदा-ए-नमनाक था
बज़्म में यूँ तो सभी थे फिर भी 'आमिर' देर तक
न समझे अश्क-फ़िशानी को कोई मायूसी
इक ख़ला सा है जिधर देखो इधर कुछ भी नहीं
मैं आज कल के तसव्वुर से शाद-काम तो हूँ