थक के पत्थर की तरह बैठा हूँ रस्ते में 'ज़फ़र'
जाने कब उठ सकूँ क्या जानिए कब घर जाऊँ
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साँस लेने को ही जीना नहीं कहते हैं 'ज़फ़र'
हम गरचे दिल ओ जान से बेज़ार हुए हैं
सवाली
मैं लिपटता रहा हूँ ख़ारों से
ऐ बे-ख़बरी जी का ये क्या हाल है कल से
ख़बर
वादी-ए-नील
यारो हर ग़म ग़म-ए-याराँ है क़रीब आ जाओ
वो मेरी जान है दिल से कभी जुदा न हुआ
है गुलू-गीर बहुत रात की पहनाई भी
तामीर-ए-ज़िंदगी को नुमायाँ किया गया
उन की महफ़िल में 'ज़फ़र' लोग मुझे चाहते हैं