साँस लेने को ही जीना नहीं कहते हैं 'ज़फ़र'
ज़िंदगी थी जो तिरे वस्ल का इम्काँ होता
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थक के पत्थर की तरह बैठा हूँ रस्ते में 'ज़फ़र'
सवाली
पुकारता हूँ कि तुम हासिल-ए-तमन्ना हो
आँखों में तिरे जल्वे लिए फिरते हैं हम लोग
आ मिरे चाँद रात सूनी है
उन की महफ़िल में 'ज़फ़र' लोग मुझे चाहते हैं
बातों से सिवा होती है कुछ वहशत-ए-दिल और
है गुलू-गीर बहुत रात की पहनाई भी
ज़हर है मेरे रग-ओ-पै में मोहब्बत शायद
हम गरचे दिल ओ जान से बेज़ार हुए हैं
पानी को आग कह के मुकर जाना चाहिए