बातों से सिवा होती है कुछ वहशत-ए-दिल और
अहबाब परेशाँ हैं मिरे तर्ज़-ए-अमल से
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हम गरचे दिल ओ जान से बेज़ार हुए हैं
थक के पत्थर की तरह बैठा हूँ रस्ते में 'ज़फ़र'
वादी-ए-नील
यारो हर ग़म ग़म-ए-याराँ है क़रीब आ जाओ
सवाली
पुकारता हूँ कि तुम हासिल-ए-तमन्ना हो
पानी को आग कह के मुकर जाना चाहिए
है गुलू-गीर बहुत रात की पहनाई भी
शहर लगता है बयाबान मुझे
आ मिरे चाँद रात सूनी है
साँस लेने को ही जीना नहीं कहते हैं 'ज़फ़र'
एक भी आफ़्ताब बन न सका