दर्द और दर्द भी जुदाई का
ऐसे बीमार की दुआ कब तक
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बुझाऊँ क्या चराग़-ए-सुब्ह-गाही
हम-नशीं उन के तरफ़-दार बने बैठे हैं
फ़ित्ना-गर शोख़ी-ए-हया कब तक
जाते हो तुम जो रूठ के जाते हैं जी से हम
पान बन बन के मिरी जान कहाँ जाते हैं
शिरकत गुनाह में भी रहे कुछ सवाब की
सर पे एहसान रहा बे-सर-ओ-सामानी का
दिल को दार-उस-सुरूर कहते हैं
तुम ने पहलू में मिरे बैठ के आफ़त ढाई
दे हश्र के वादे पे उसे कौन भला क़र्ज़
मुँह छुपाना पड़े न दुश्मन से