बुझाऊँ क्या चराग़-ए-सुब्ह-गाही
मिरे घर शाम होनी है सहर से
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आज तक कोई न अरमान हमारा निकला
मुरादें कोई पाता है किसी की जान जाती है
किस मुँह से हाथ उठाएँ फ़लक की तरफ़ 'ज़हीर'
हाए उस शोख़ का अंदाज़ से आना शब-ए-वस्ल
इंसान वो क्या जिस को न हो पास ज़बाँ का
अभी से आ गईं नाम-ए-ख़ुदा हैं शोख़ियाँ क्या-क्या
दिल गया दिल का निशाँ बाक़ी रहा
वो जो कुछ कुछ निगह मिलाने लगे
रंग जमने न दिया बात को चलने न दिया
वो किसी से तुम को जो रब्त था तुम्हें याद हो कि न याद हो
फटा पड़ता है जोबन और जोश-ए-नौ-जवानी है