आज तक कोई न अरमान हमारा निकला
क्या करे कोई तुम्हारा रुख़-ए-ज़ेबा ले कर
Gulzar
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फ़ित्ना-गर शोख़ी-ए-हया कब तक
यहाँ देखूँ वहाँ देखूँ इसे देखूँ उसे देखूँ
इश्क़ है इश्क़ तो इक रोज़ तमाशा होगा
हाए काफ़िर तिरे हमराह अदू आता है
बुतों से बच के चलने पर भी आफ़त आ ही जाती है
रंग जमने न दिया बात को चलने न दिया
क़हर है ज़हर है अग़्यार को लाना शब-ए-वस्ल
रहता तो है उस बज़्म में चर्चा मिरे दिल का
वो झूटा इश्क़ है जिस में फ़ुग़ाँ हो
बुझाऊँ क्या चराग़-ए-सुब्ह-गाही
आख़िर मिले हैं हाथ किसी काम के लिए
चौंक पड़ता हूँ ख़ुशी से जो वो आ जाते हैं