अक़्ल कुछ ज़ीस्त की कफ़ील नहीं
ज़िंदगी इतनी बे-सबील नहीं
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मेरी तज्वीज़ पर ख़फ़ा क्यूँ हो
आरिज़ से तिरे सुब्ह की तोहमत न उठेगी
आप के साथ मुस्कुराने में
हम से वाइज़ ने बात की होती
गोश-ए-मुश्ताक़-ए-सदा-ए-नाला-ए-दिल अब कहाँ
गो उन्हें राह-ए-इंहिराफ़ नहीं
मुख़्तसर बात-चीत अच्छी है
फ़िक्र-मंदी फ़ुज़ूल होती है
यक़ीं गर करो तुम बहुत ख़ूब है
पड़ती नहीं है दिल पे तिरे हुस्न की किरन
जुनून-ए-इश्क़-ए-सर बेदार भी है