वो भी शायद रो पड़े वीरान काग़ज़ देख कर
मैं ने उस को आख़िरी ख़त में लिखा कुछ भी नहीं
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क़हत-ए-वफ़ा-ए-वा'दा-ओ-पैमाँ है इन दिनों
बरसों से खड़ा हूँ हाथ उठाए
दिन ऐसे यूँ तो आए ही कब थे जो रास थे
इश्क़ में मारके बला के रहे
अपनी सूरत बिगड़ गई लेकिन
वो जिसे सारे ज़माने ने कहा मेरा रक़ीब
रो लेते थे हँस लेते थे बस में न था जब अपना जी
घर से उस का भी निकलना हो गया आख़िर मुहाल
बाद-ए-तर्क-ए-उल्फ़त भी यूँ तो हम जिए लेकिन
लुट गया है सफ़र में जो कुछ था