घर से उस का भी निकलना हो गया आख़िर मुहाल
मेरी रुस्वाई से शोहरत कू-ब-कू उस की भी थी
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लुट गया है सफ़र में जो कुछ था
क़हत-ए-वफ़ा-ए-वा'दा-ओ-पैमाँ है इन दिनों
अपनी सूरत बिगड़ गई लेकिन
बाद-ए-तर्क-ए-उल्फ़त भी यूँ तो हम जिए लेकिन
सुनते हैं चमकता है वो चाँद अब भी सर-ए-बाम
दिन ऐसे यूँ तो आए ही कब थे जो रास थे
ख़ुद को पाने की तलब में आरज़ू उस की भी थी
रो लेते थे हँस लेते थे बस में न था जब अपना जी
हयात वक़्फ़-ए-ग़म-ए-रोज़गार क्यूँ करते
ज़ुल्म तो ये है कि शाकी मिरे किरदार का है
रक्खा नहीं ग़ुर्बत ने किसी इक का भरम भी