लुट गया है सफ़र में जो कुछ था
पास अपने मकान तक भी नहीं
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छोड़ कर दिल में गई वहशी हवा कुछ भी नहीं
वो भी शायद रो पड़े वीरान काग़ज़ देख कर
रक्खा नहीं ग़ुर्बत ने किसी इक का भरम भी
रो लेते थे हँस लेते थे बस में न था जब अपना जी
पास हमारे आकर तुम बेगाना से क्यूँ हो
वो जिसे सारे ज़माने ने कहा मेरा रक़ीब
सुनते हैं चमकता है वो चाँद अब भी सर-ए-बाम
ख़ुद को पाने की तलब में आरज़ू उस की भी थी
बरसों से खड़ा हूँ हाथ उठाए
क़हत-ए-वफ़ा-ए-वा'दा-ओ-पैमाँ है इन दिनों