तन्हाई न पूछ अपनी कि साथ अहल-ए-जुनूँ के
चलते हैं फ़क़त चंद क़दम राह के ख़म भी
Wasi Shah
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ज़ुल्म तो ये है कि शाकी मिरे किरदार का है
वो जिसे सारे ज़माने ने कहा मेरा रक़ीब
ख़ुद को पाने की तलब में आरज़ू उस की भी थी
रो लेते थे हँस लेते थे बस में न था जब अपना जी
दीपक-राग है चाहत अपनी काहे सुनाएँ तुम्हें
हयात वक़्फ़-ए-ग़म-ए-रोज़गार क्यूँ करते
घर से उस का भी निकलना हो गया आख़िर मुहाल
हर घड़ी क़यामत थी ये न पूछ कब गुज़री
इश्क़ में मारके बला के रहे
बाद-ए-तर्क-ए-उल्फ़त भी यूँ तो हम जिए लेकिन
लुट गया है सफ़र में जो कुछ था
सहरा में घटा का मुंतज़िर हूँ