ज़रा इक तबस्सुम की तकलीफ़ करना
कि गुलज़ार में फूल मुरझा रहे हैं
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न ख़ुदा है न नाख़ुदा साथी
या दुपट्टा न लीजिए सर पर
ऐ साक़ी-ए-मह-वश ग़म-ए-दौराँ नहीं उठता
जिस वक़्त भी मौज़ूँ सी कोई बात हुई है
आगही में इक ख़ला मौजूद है
काफ़ी वसीअ सिलसिला-ए-इख़्तियार है
साक़ी तुझे इक थोड़ी सी तकलीफ़ तो होगी
जब तिरे नैन मुस्कुराते हैं
पहले बड़ी रग़बत थी तिरे नाम से मुझ को
जहाँ वो ज़ुल्फ़-ए-बरहम कारगर महसूस होती है
हश्र तक भी अगर सदाएँ दें
जुम्बिश-ए-काकुल-ए-महबूब से दिन ढलता है