ऐ ख़राबात के ख़ुदावंदो
दस्त-ए-अल्ताफ़ को खुला रक्खो
जो मोहब्बत से चल के आ जाए
उस की उम्मीद को हरा रक्खो
Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
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कितनी बे-साख़्ता ख़ता हूँ मैं
जाम उठा और फ़ज़ा को रक़्साँ कर
हुजूम-ए-हश्र में खोलूँगा अद्ल का दफ़्तर
हश्र तक भी अगर सदाएँ दें
मरने वाले तो ख़ैर हैं बेबस
हद से बढ़ कर हसीन लगते हो
सब को पहुँचा के उन की मंज़िल पर
थोड़ी सी अक़्ल लाए थे हम भी मगर 'अदम'
साक़ी शराब ला कि तबीअ'त उदास है
सो के जब वो निगार उठता है
चलते चलते तमाम रस्तों से
पर लगा कर उड़ेगा नाम तिरा