दूर बस्ती पे है धुआँ कब से
क्या जला है जिसे बुझाते नहीं
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एक ख़ुदा पर तकिया कर के बैठ गए हैं
दिन गुज़रते हैं गुज़रते ही चले जाते हैं
कभी देखो तो मौजों का तड़पना कैसा लगता है
फ़लक पर उड़ते जाते बादलों को देखता हूँ मैं
कितनी महबूब थी ज़िंदगी कुछ नहीं कुछ नहीं
बरसते थे बादल धुआँ फैलता था अजब चार जानिब
साए फैल गए खेतों पर कैसा मौसम होने लगा
एक मिश्अल थी बुझा दी उस ने
दम-ब-दम मुझ पे चला कर तलवार
उतरे थे मैदान में सब कुछ ठीक करेंगे
पाँव रुकते ही नहीं ज़ेहन ठहरता ही नहीं
लोगों ने बहुत चाहा अपना सा बना डालें