फिरते थे दश्त दश्त दिवाने किधर गए
वे आशिक़ी के हाए ज़माने किधर गए
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जाल में जिस के शौक़ आई है
जलता है अब तलक तिरी ज़ुल्फ़ों के रश्क से
तिरा क़द सर्व सीं ख़ूबी में चढ़ है
क्यूँ मलामत इस क़दर करते हो बे-हासिल है ये
क्यूँ तिरी थोड़ी सी गर्मी सीं पिघल जावे है जाँ
ख़ुदा के वास्ते ऐ यार हम सीं आ मिल जा
शेर को मज़मून सेती क़द्र हो है 'आबरू'
या सजन तर्क-ए-मुलाक़ात करो
रखे कोई इस तरह के लालची को कब तलक बहला
जब सीं तिरे मुलाएम गालों में दिल धँसा है
मैं निबल तन्हा न इस दुनिया की सोहबत सीं हुआ
दुश्मन-ए-जाँ है तिश्ना-ए-ख़ूँ है