राहत की जुस्तुजू में ख़ुशी की तलाश में
ग़म पालती है उम्र-ए-गुरेज़ाँ नए नए
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नहीं किसी की तवज्जोह ख़ुद-आगही की तरफ़
यही महर ओ माह ओ अंजुम को गिला है मुझ से या-रब
अपने अपने हौसलों अपनी तलब की बात है
नग़्मा-ए-इश्क़-ए-बुताँ और ज़रा आहिस्ता
हज़ार बार इरादा किए बग़ैर भी हम
बाँध कर अहद-ए-वफ़ा कोई गया है मुझ से
मंज़िलें न भूलेंगे राह-रौ भटकने से
इक ख़लिश को हासिल-ए-उम्र-ए-रवाँ रहने दिया
मिरे शौक़-ए-जुस्तुजू का किसे ए'तिबार होता