देख कर उस को लगा जैसे कहीं हो देखा
याद बिल्कुल नहीं आया मुझे घंटों सोचा
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पयाम-ए-आश्ती इक ढोंग दोस्ती का था
जो दिल में है वही बाहर दिखाई देता है
जो साथ लाए थे घर से वो खो गया है कहीं
हिजरत
सभी हैं अपने मगर अजनबी से लगते हैं
आख़िरी सफ़र
जू-ए-रवाँ हूँ ठहरा समुंदर नहीं हूँ मैं
असीर-ए-जिस्म हूँ दरवाज़ा तोड़ डाले कोई
नाम अपना ही मैं सब से खड़ा पूछ रहा था
राह तकते जिस्म की मज्लिस में सदियाँ हो गईं
तज़ाद
गुज़रते लम्हों का मातम