जोखम ऐ मर्दुम-ए-दीदा है समझ के रोना
डूब भी जाते हैं दरिया में नहाने वाले
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तिरछी नज़र न हो तरफ़-ए-दिल तो क्या करूँ
दुनिया जो न मैं चंद नफ़स के लिए लेता
तू नहीं मिलती तो हम भी तुझ को मिलने के नहीं
जश्न था ऐश-ओ-तरब की इंतिहा थी मैं न था
लिक्खा है जो तक़दीर में होगा वही ऐ दिल
चलते हैं गुलशन-ए-फ़िरदौस में घर लेते हैं
नहीं करते वो बातें आलम-ए-रूया में भी हम से
दिल को लटका लिया है गेसू में
पुर-नूर जिस के हुस्न से मदफ़न था कौन था
शाख़-ए-गुल झूम के गुलज़ार में सीधी जो हुई
चाहिएँ मुझ को नहीं ज़र्रीं क़फ़स की पुतलियाँ
रंग जिन के मिट गए हैं उन में यार आने को है