उस की आँखों के वस्फ़ क्या लिक्खूँ
जैसे ख़्वाबों का बे-कराँ ठहराओ
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बे-ज़ारी की आख़िरी साअत
दुनिया मिरे पड़ोस में आबाद है मगर
क्या पूछते हो शहर में घर और हमारा
एक ख़याल
हमारी हम-नफ़सी को भी क्या दवाम हुआ
आँसू की तरह दीदा-ए-पुर-आब में रहना
एक खेल
ख़बर नहीं है मिरे बादशाह को शायद
दुनिया से तन को ढाँप क़यामत से जान को
गए थे वहाँ जी में क्या ठान कर के
मगर वो दिया ही नहीं मान कर के
कितने में बनती है मोहर ऐसी