ख़बर नहीं है मिरे बादशाह को शायद
हज़ार मर्तबा आज़ाद ये ग़ुलाम हुआ
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हमेशा दिल हवस-ए-इंतिक़ाम पर रक्खा
आँखों की तज्दीदा
तुलू-ए-साअत-ए-शब-ख़ूँ है और मेरा दिल
आँधी का रजज़
बे-ज़ारी की आख़िरी साअत
ये क्या चीज़ तामीर करने चले हो
हमारी हम-नफ़सी को भी क्या दवाम हुआ
चाक करते हैं गरेबाँ इस फ़रावानी से हम
घर और बयाबाँ में कोई फ़र्क़ नहीं है
मौजूद हैं कितने ही तुझ से भी हसीं कर के
कितने में बनती है मोहर ऐसी