हमेशा दिल हवस-ए-इंतिक़ाम पर रक्खा
ख़ुद अपना नाम भी दुश्मन के नाम पर रक्खा
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दिल आईना है मगर इक निगाह करने को
दिल से बाहर आज तक हम ने क़दम रक्खा नहीं
उस की आँखों के वस्फ़ क्या लिक्खूँ
ख़बर नहीं है मिरे बादशाह को शायद
क्या पूछते हो शहर में घर और हमारा
निहाल-ए-वस्ल नहीं संग-बार करने को
यही दिल जो इक बूँद है बहर-ए-ग़म की
तुलू-ए-साअत-ए-शब-ख़ूँ है और मेरा दिल
कितने में बनती है मोहर ऐसी
तिरी दुनिया में ऐ दिल हम भी इक गोशे में रहते हैं
एक तअस्सुर
घर और बयाबाँ में कोई फ़र्क़ नहीं है