कुंज-ए-ज़िंदाँ में पड़ा सोचता हूँ
कितना दिलचस्प नज़ारा होगा
ये सलाख़ों में चमकता हुआ चाँद
तेरे आँगन में भी निकला होगा
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तिमतिमाते हैं सुलगते हुए रुख़्सार तिरे
ईद का दिन है फ़ज़ा में गूँजते हैं क़हक़हे
जी चाहता है फ़लक पे जाऊँ
फ़ासले के मअ'नी का क्यूँ फ़रेब खाते हो
ज़िक्र-ए-मिर्रीख़-ओ-मुश्तरी के साथ
क़ानून-ए-क़ुदरत
शाम को सुब्ह-ए-चमन याद आई
यूँ तो पहने हुए पैराहन-ए-ख़ार आता हूँ
जिस भी फ़नकार का शहकार हो तुम
कई बरस से है वीरान मर्ग़ज़ार-ए-शबाब
ढलान
मिरे ख़ुदा ने किया था मुझे असीर-ए-बहिश्त