मैं तकिए पर सितारे बो रहा हूँ
जनम-दिन है अकेला रो रहा हूँ
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किसी को साल-ए-नौ की क्या मुबारकबाद दी जाए
फूलों में वो ख़ुशबू वो सबाहत नहीं आई
रिहा कर दे क़फ़स की क़ैद से घायल परिंदे को
न गुमान मौत का है न ख़याल ज़िंदगी का
ये ठीक है कि बहुत वहशतें भी ठीक नहीं
ग़ज़ल फ़ज़ा भी ढूँडती है अपने ख़ास रंग की
मुख़्तलिफ़ अपनी कहानी है ज़माने भर से
दिल हैं यूँ मुज़्तरिब मकानों में
शहर-ए-हवा में जलते रहना अंदेशों की चौखट पर
गुफ़्तुगू देर से जारी है नतीजे के बग़ैर
अजब नशा है तिरे क़ुर्ब में कि जी चाहे
कहा तख़्लीक़-ए-फ़न बोले बहुत दुश्वार तो होगी