बुलावा

नगर नगर के देस देस के पर्बत टीले और बयाबाँ

ढूँड रहे हैं अब तक मुझ को खेल रहे हैं मेरे अरमाँ

मेरे सपने मेरे आँसू इन की छलनी-छाँव में जैसे

धूल में बैठे खेल रहे हों बालक बाप से रूठे रूठे!

दिन के उजाले साँझ की लाली रात के अँधियारे से कोई

मुझ को आवाज़ें देता है आओ आओ आओ आओ

मेरी रूह की ज्वाला मुझ को फूँक रही है धीरे धीरे

मेरी आग भड़क उट्ठी है कोई बुझाओ कोई बुझाओ

मैं भटका भटका फिरता हूँ खोज में तेरी जिस ने मुझ को

कितनी बार पुकारा लेकिन ढूँड न पाया अब तक तुझ को

मेरे संगी मेरे साथी तेरे कारन छूट गए हैं

तेरे कारन जग से मेरे कितने नाते टूट गए हैं

मैं हूँ ऐसा पात हवा में पेड़ से जो टूटे और सोचे

धरती मेरी गोर है या घर ये नीला आकाश जो सर पर

फैला फैला है और इस के सूरज चाँद सितारे मिल कर

मेरा दीप जला भी देंगे या सब के सब रूप दिखा कर

एक इक कर के खो जाएँगे जैसे मेरे आँसू अक्सर

पलकों पर थर्रा थर्रा कर तारीकी में खो जाते हैं

जैसे बालक माँग माँग कर नए खिलौने सो जाते हैं!

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Bulawa In Hindi By Famous Poet Akhtar-ul-Iman. Bulawa is written by Akhtar-ul-Iman. Complete Poem Bulawa in Hindi by Akhtar-ul-Iman. Download free Bulawa Poem for Youth in PDF. Bulawa is a Poem on Inspiration for young students. Share Bulawa with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.