हम को तो मयस्सर नहीं मिट्टी का दिया भी
घर पीर का बिजली के चराग़ों से है रौशन
शहरी हो दिहाती हो मुसलमान है सादा
मानिंद-ए-बुताँ पुजते हैं काबे के बरहमन
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बाग़-ए-बहिश्त से मुझे हुक्म-ए-सफ़र दिया था क्यूँ
बच्चे की दुआ
वही मेरी कम-नसीबी वही तेरी बे-नियाज़ी
तिरा जौहर है नूरी पाक है तू
हर चीज़ है महव-ए-ख़ुद-नुमाई
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
इश्क़ तिरी इंतिहा इश्क़ मिरी इंतिहा
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है
तराना-ए-मिल्ली
वही अस्ल-ए-मकान-ओ-ला-मकाँ है
जमाल-ए-इश्क़-ओ-मस्ती नय-नवाज़ी
गुज़र जा अक़्ल से आगे कि ये नूर