गुम रहोगे कब तक अपनी ज़ात ही में
ज़िंदगी से भी कभी आँखें मिलाओ
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ये क्या कि फ़क़त अपनी ही तस्वीर बनाओ
दश्त-दर-दश्त फिरा करता हूँ प्यासा हूँ मैं
क्यूँ लग़्ज़िश-ए-पा मेरी मलामत का हदफ़ है
हर सुब्ह के चेहरे को निखारा किस ने
हैं ख़्वाब भी और ख़्वाब की ताबीरें भी
जब तजरबा की धूप में एहसास आया
मेरा ज़ौक़-ए-सज्दा-रेज़ी रास जिन को आ गया
ज़ख़्म दिल का ख़ूँ-चकाँ ऐसा न था
सूरज पे जो थूकोगे तो क्या पाओगे
ख़ुद-साख़्ता अफ़्साने सुनाते रहिए
वो मसाफ़-ए-जीस्त में हर मोड़ पर तन्हा रहा