जब तजरबा की धूप में एहसास आया
अल्फ़ाज़ ने पैराहन-ए-शेअरी बख़्शा
आँखों में चमक उठ्ठे हज़ारों दीपक
मफ़्हूम का चेहरा भी नज़र में उभरा
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गुम रहोगे कब तक अपनी ज़ात ही में
एहसास में बे-ताबीे-ए-जाँ रख दी है
हर सुब्ह के चेहरे को निखारा किस ने
गुम-कर्दा-ए-मंज़िल हुई आवाज़-ए-दरा
उस मंज़िल-ए-हयात में अब गामज़न है दिल
ख़ुद-साख़्ता अफ़्साने सुनाते रहिए
किस वास्ते साहिल पे खड़े हो शश्दर
जुनून-ए-शौक़-ए-मोहब्बत की आगही देना
गुलज़ार से क्या दश्त-ओ-दमन से गुज़रे
ये क्या कि फ़क़त अपनी ही तस्वीर बनाओ
हैं ख़्वाब भी और ख़्वाब की ताबीरें भी
वो मसाफ़-ए-जीस्त में हर मोड़ पर तन्हा रहा